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Friday, August 5, 2011

गोविंदपुरा दो अगस्त एजीटेशन का दिन - एक पत्रकार की जुबानी

वो फिर आयेंगे....

Peasants protesting against Land acquisition in Govindpura, Punjab - One peasant lost his life in brutal baton-charge on this peaceful march of peasants.

मैं कल सुबह पटियाला से गोविंदपुर की तरफ निकला , जहाँ पंजाब की 17 किसान मजदूर सभाओं ने जबरी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मोर्चा लगाना था। मैं कहीं ऐसी जगह पहुँचना चाहता था जहाँ से मजदूर-किसानों के किसी काफिले के साथ गोविंदपुर की तरफ जा सकूँ। मगर ये असंभव था क्योंकि कोई भी फ़ोन पर कोई बात बताना नहीं चाहता था कि कहाँ से कैसे जाना है। मेरे लिए ये इलाका नया था। कुछ लोगों ने मुझे कहा तुम बरेटा जाना वहां तुम्हे कोई किसानों का काफिला मिल जायेगा। उन्के साथ तुम गोविंदपुर निकल जाना। फिर रस्ते में किसी ने कहा तुम भीखी उतर जाओ, वहाँ पर कोई किसान जत्था तुम्हें मिल सकता है। क्योंकि गोविंदपुर जाने वाले सभी रास्तों को भारी पुलिस बलों ने घेर रखा है , किसानों मजदूरों का गोविंदपुर पहुँचाना मुश्किल है। तो मैं भीखी उतर गया।

वहां से बस लेकर बुढलाडा निकला। भीखी से निकलते ही गोविंदपुर की तरफ जाती सड़क को ट्रक लगाकर बंद कर रखा था पुलिस वालों ने। बस की तलाशी लेने के बाद ही बस को जाने दिया। इस में उन्हें कोई धरनाकारी नहीं मिला। फिर बस भीखी से बुढलाडा की ओर बढने लगी। रस्ते में धान के खेत खामोश से थे। कहीं कहीं कपास के खेतों में फूल मुरझा से रखे थे। सभी खेत जैसे सरकार से डर रहे हों कि कल हमारे भी उजड़ने की बरी आ जाएगी। मैं डेढ़ घंटे के रस्ते में यही सोचता जा रहा था कि क्या उन लोगों को मिला जा सकता है या नहीं। कहीं पर भी कोई हलचल नहीं थी। पूरा वातावरण शांत था जैसे कोई मौत हो रखी हो।

आगेवाली सीट पर बैठी कुछ महिलाएं बोल रही थीं ' ये तो सरासर धक्केशाही है ’ , सारी जमीन इन्हे दे दी तो लोग कहाँ जायेंगे', धूल भरे राहों से खड-खड करती बस बरेटा की और बड़ रही थी। लोग अपने खेतो में काम कर रहे थे। सड़क पर पुलिस की गाड़ियाँ आ जा रहीं थी। मैं सोच रहा था कि शायद मैं काफिले से नहीं मिल पाऊंगा और कहीं भी कोई काफिले का साथी नज़र नहीं आ रहा था। बरेटा से कोई 6-7 k m पहले खेतों बस रुकी तो एक सत्तर पचत्तर साल का बजुर्ग बस में चड़ा। बस मेरे साँस में साँस आई। वो देखने में साधारण ग्रामीण सा बज़ुरग काफिले का ही साथी था , ये मैं जान गया था और मैंने सोच लिया में इसके पीछे ही जाऊँगा, ये जरूर संघर्षित लोगों के साथ मिलेगा। ज्यों ही बस बरेटा बस अड्डे पर रुकी, मेरे tripod सँभालते सँभालते वो बज़ुरग अंखो से ओझल हो गया। मैं इधर उधर देखता रह गया। अभी फिर मेरी आस धुंदली पड़ गई थी।

गर्मी से बेहाल मैं बस अड्डे के भीतर गया। आंखों में पानी के छींटे मारे, पानी पिया तो मैने मुडकर देखा कि यात्रिओं की भीड़ में मुझे काफी लोग गोविंदपुर जाने वाले लगे। वो बिना किसी चिन्ह के थे और बिलकुल शांत ........ साधारण यात्री …… पर मैं उन्हें पहचान सकता था। वो 2 -4 के ग्रुपों में थे पर वो थे काफी लोग , मैने धीरे धीरे उनसे बात करने की कोशिश की पर वो बात नहीं करना चाहते थे। मैने उनसे पूछा गोविंदपुर कैसे जा सकतें हैं ? तो उन्हों ने मुझे गलत बस बताई जो वहां नहीं जा रही थी। शायद वो मुझे सी.आई.डी वाला समझते थे। मैने उन की बताई बस नहीं पकड़ी और उनके आसपास ही घूमता रहा। वो मेरे से फासिला रखे हुए थे और उनके काफी और साथी इधर उधर कोनो में बैठे थे। फिर वो दो-दो के गुटों मे एक बस में चढ़ गए , चार पांच नौजवान लोग बस की छत्त पर चढ़ गए और मैं भी उनके पीछे छत्त पर ही चढ़ गया। वहां पहले से ही कुछ विधियार्थी बैठे थे, वो ऊपर चड़ते उनको को कहने लगे 'होर बाई अज्ज गोविंदपुर नहीं गए तुसीं?' (और फिर आप गोविंदपुर नहीं गए आज?)वो लोग विधियार्थिओं को आँखों आँखों से चुप होने को कह रहे थे और मेरे साथ आंख नहीं मिला रहे थे। मैने एक नौजवान से कहा यार तुम मेरे से मत डरो, भई मैं पत्रकार हूँ और आप लोगों की सहायता करने ही आया हूँ और मैं भी आप लोगों में से ही हूँ, कृपया मुझे किसी किसान काफिले तक पहुंचा दो। इस तरह धीरे-धीरे उन्हों ने मुझ पर विश्वास किया।

शहर से निकलते ही भारी पुलिस नाका था। बस की तलाशी लेने के बाद बस चल पड़ी और उन में से किसी को भी पुलिस पहचान नहीं पायी। इस बहुत ही नीचे झुके पेड़ों वाली सड़क पर बस पता नहीं किस तरफ जा रही थी , छत्त पर लेटे लेटे पंद्रह किलो मीटर के करीब रास्ता तैय करने के बाद बस एक गाँव के बाहर रुकी और वो लोग जल्दी जल्दी नीचे उतरने लगे। मैं भी उनके साथ ही वहां उतर गया और हम खेतों के बीचों-बीच चलने लगे। अब वो मेरे से बात करने लगे थे और पूछ रहे थे 'यार तूं अजीब पत्रकार एं खेताँ च साडे नाल तुरिया फिरदा एं ' चल लिया फड़ा आपना इक बैग , ऐना भार काह्तों चुकिया ऐ ?' (यार, तुम अजीब पत्रकार हो? खेतों में हमारे साथ चले फिरते हो। लाओ, अपना एक बैग हमें पकडा दो। इतना भार क्यों उठा रखा है?) उनमें से एक ने मेरा tripod बैग ले लिया और अब मैं आसानी से उनके साथ चल पा रहा था। वो लगभग भागते ही जा रहे थे। उन्हें गोविंदपुर पहुचना थाI गर्मी जला देने को थी , एक बूडा आदमी कहने लगा " भैण चो.......अज्ज रब्ब वी मेरे साले बादलां नाल ही रल गया ए" (आज तो भगवान भी 'बादलों' के साथ मिल गया है) कोई छः-सात किलोमीटर पैदल चल कर हम लोग एक पक्की सड़क पर चढ़ गए। थोड़ी दूर जाने के बाद एक कार हमारे से आगे निकल कर रुक गई जिसमे कुछ पत्रकार लोग थे। कैमरा देख कर वो मुझे साथ चलने को कहने लगे। किसानों ने भी मुझे कार से जाने को कहा और दियाल बाबे ने मेरा छाता ले लिया और कहा ' डसके (एक गांव का नाम) आके ले लेना। रस्ते में पत्रकारों ने मेरे से काफी स्वाल पूछे। बीस मिनट में हम daska पहुँच गए।

एक खुले मैदान में पांच सौ के करीब मजदूर किसान छोटे बबूल के पेड़ों के नीचे चाली पचास के ग्रुपों में अपने और आने वाले साथिओं का इंतजार कर रहे थे। एक छोटे ट्रक पर स्पीकर पर एक स्थानीय किसान नेता किसानों को भाशण दे रहा था और हर हाल में गोविंदपुर पहुचने के बारे में कह रहा था। इतने में चार पांच गाड़ियाँ किसानों मजदूरों से भरी हुई आ गईं। लोग सरकार के खिलाफ जमकर नारे लगा रहे थे। फिर सारे लोग एक जगह इक्कठे होने लगे और रैली करने लगे। स्पीकर से अनाउंस हुआ कि हम गोविंदपुर की तरफ आगे बढेंगे। हमारे मोगा से आने वाले साथी जेठूके पहुँचने में कामयाब हो गए हैं। वहां से पचीस गाड़ीयों से हमारी तरफ आ रहे है। सभी लोग अपने झंडे और डंडे सँभालते हुए आगे बढने लगे। इतने में चार पांच गाड़ियां पुलिस की आ गईं और वे उन को रोकने की कोशिश करने लगे पर वो पुलिस को धकेलते हुए आगे बढने लगे। उनके नारे आस्मां तक गूंज रहे थे। वो किसी के रोकने से नहीं रुकने वाले थे। वो बड़ते ही जा रहे थे।

फिर एक खबर आई ....एक काफिला रुलदू सिंह की अगवाई में मानसा से निकला हुआ था वो भी गोविंदपुर के पास रोक दिया गया और झड़प भी हुई .........इस से रोश और भी भड़क गया। वो और तेज चलने लगे। रस्ते में लोग उनको पानी पिला रहे थे। एक जीप की खिड़की में लटकता हुआ मैं उनके साथ चल रहा था। पांच छः किलोमीटर निकल कर वो एक टयूब्वैल से पानी पीने लगे। पुलिस वाले उन्हें मनाने की कोशिश करते रहे पर वो फिर भी आगे बड़ते रहे। वो अपने दुप्पटों को गीला कर सर ढक रहे थे ,.इन्कलाब के गीत गा रहे थे।

काफिला पुलिस को घसीटता एक गाँव रंघ्ढ़ियाल जा पहुंचा। वहां पर और भारी पुलिस फोर्स पहुँच चुकी थी। फिर एक और खबर आई। जेठूके से चले काफिले पर लाठीचार्ज हो गया है ,.एक साथी शहीद हो गया है। मानो जैसे उनके दिलों में तूफ़ान खुल गया हो। वो अपने लट्ठ सँभालने लगे ........उनके साथ उनका कोई बड़ा नेता नहीं था। अब पुलिस बहुत ज्यादा थी, वो आगे बढने की पलानिंग करने लगे .......तभी उनके ऊपर वाले नेताओं का फ़ोन आ गया ,,,,,,,,,हमारा एक साथी शहीद हो गया .....अब आगे मत बड़ो। तुम लोग गिनती में कम हो। उनकी आँखों में जैसे आग जल रही हो। वो बार बार दोहरा रहे थे 'अज्ज वापिस नहीं जाना' (आज वापिस नहीं जाना।) पर वो सरकार को बता चुके थे ..........कि वो हारे नहीं.............वो फिर आयेंगे।

गोविन्दपुर में महिलायों ने इक्कठे होकर जमीन पर लगी कांटेदार तार उखड़ फेंकी थी .........पर लड़ाई अभी बाकी है…… वो फिर आयेंगे।

Courtesy : Randeep Singh

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